अब नहीं सहा जाता!
यह धधकता हुआ अधर्म, यह
मनुजता का हाहाकार —
जहाँ स्वार्थ रक्त पीता है
और वाणी विष वमन करती है!
यह कैसा देश?
जहाँ धर्म की ओट में नरसंहार है,
जहाँ नीति की छाया में
नीचता पलती है।
जहाँ भुजाओं में बल नहीं —
दिमाग़ों में बारूद भरा है।
अब नहीं सहा जाता!
बोलो धरा!
क्या तू अब भी ऐसे संतुलन को ढोएगी
जहाँ न्याय गूंगा है
और अन्याय की जयघोष?
क्या पर्वत अब भी निश्चल रहेंगे?
क्या नदियाँ अब भी चुपचाप बहेंगी?
मैं कहता हूँ —
उठे ज्वालामुखी!
फटे धरती का सीना!
गूँजे वह क्रंदन
जो चीर दे सभ्यता का आवरण।
आ जाए वह प्रलय —
जो नाश न हो,
पुनर्जन्म हो!
जो राख न हो,
चेतना हो!
और यदि युद्ध चाहिए —
तो हो!
पर तलवारें नहीं —
विचार झपटें!
गोलियाँ नहीं —
क्रांति के मंत्र चलें!
मरें सब —
पर इस बार शांति से नहीं,
बलिदान से!
मृत्यु भी गरिमा माँगती है,
और यह जीवन — अब अपमान है।
अब प्रलय ही न्याय है,
क्योंकि मनुष्य अब मनुष्य नहीं रहा।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




