जब प्रतिभा की लौ में यातनाएँ जलने लगती हैं
और प्रश्नों की आँधी वजूद को छलने लगती हैं
देशभक्ति पर प्रहार, निष्ठा पर वार
शक्ति छीनते, प्रतिष्ठा को रौंदते।
जो ब्रह्माण्ड की भाषा को समझने लगा था
विज्ञान के शिखर पर अकेला ही पहुँच गया था
वही समय के हाथों छला, फिर छोड़ दिया उसे
निर्जन रेगिस्तान में, जहाँ न जल, न छाँव, बस तिरस्कार।
मैं देखता हूँ यह सब, पर विवश, लाचार
जैसे फाँसी से पूर्व कोई कैदी बेकरार
जिसने ब्रह्मास्त्र रचा, वह स्वयं भस्म हुआ
काल मैं हूँ! कहने वाला काल से ग्रस्त हुआ।
- प्रतीक झा 'ओप्पी'
चन्दौली, उत्तर प्रदेश