मैंने तो हर साँस में
तेरा ही नाम बुना है—
जैसे नदी अपने पथ में
बस सागर को जानती है,
जैसे पंछी अपने गीत में
सिर्फ आकाश को पुकारता है,
जैसे सूरज की पहली किरण
सिर्फ सुबह को जगाती है।
हर धड़कन की थाली में
तेरी ही आरती सजाई है,
जैसे अँधेरे में दीपक
केवल लौ को पुकारता है,
जैसे चाँदनी रात में
तारे बस चाँद से बातें करते हैं,
और हवाएँ सिर्फ़ तेरा नाम लिपटाती हैं।
दुनिया ने कितने ही चेहरे दिखाए,
पर मेरी आँखें अंधी रहीं—
तेरे सिवा किसी को देखा ही नहीं,
और अगर देखा, तो भी
बस तुझमें ही खो गई।
ओ मेरे प्रीतम,
मैं जैसा भी हूँ—
टूटा हुआ दर्पण,
या आधा जला हुआ दीप—
फिर भी तेरे ही घर का हूँ।
और अगर तू मुझे ठुकरा भी दे,
मैं तेरे आँगन की धूल बन
तेरे द्वार पर ही बिखरा रहूँगा।
मैंने खुद को कभी
अपने नाम से पुकारा नहीं—
हर पुकार में तेरा ही नाम था।
जैसे पत्तों पर ओस की बूँद
सिर्फ सुबह को पुकारती है,
वैसे ही मेरी चाहत
सिर्फ तुझ तक पहुँची है।
तू चाहे मौन रह,
या न बोले मुझसे,
मैं तेरे मौन को भी
तेरी आहट मान लूँगा,
और तेरी नज़रों की एक झलक
मेरे पूरे अस्तित्व को रोशन कर देगी।
क्योंकि प्रीतम—
मेरा होना
तेरे बिना अधूरा ही नहीं,
निरर्थक है।
मैं तो जन्मों-जन्मों से
बस तेरा ही हूँ,
तेरा ही रहूँगा—
जैसे मिट्टी की गंध
बरसात के बिना
अपना अस्तित्व सोच भी नहीं सकती,
जैसे साँसे बिना हवा के
अपना जीवन नहीं पा सकती।
पर जब तू मेरे पास होगा,
तो हर शब्द गीत बन जाएगा,
हर क्षण तेरा स्पर्श महसूस करेगा,
और मेरी आत्मा की धड़कन
तेरे नाम की मृदु लय में बह जाएगी।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड