शाम की छाया हूँ मैं,
धीरे-धीरे ढल जाऊँगा,
महफ़िल की कोलाहल में नहीं,
किसी मौन कोने की स्मृति बन जाऊँगा।
दीप थे जो आँखों में,
स्वप्न जले, राख हो गए,
अब उसी राख से
मैं नीरव गान गुनगुनाऊँगा।
जो मुझे जीत कर भी थक गए हैं,
उन्हें हार की भीतरी गहराई समझाऊँगा,
गुलाब जो काँटों पर मुस्कुराते रहे,
उन्हें अपनी चुप्पी से सहलाऊँगा।
अब उस शांति की चाह में,
मौन को मैं अपनी राह बनाऊँगा,
जहाँ कोई शोर न होगा,
वहीं मैं अपना अंतर सजाऊँगा।
हार मेरी अब,
मेरी साधना बन जाएगी,
एक टूटन जो भीतर पिघलती रही,
वही अब मुझको राह दिखाएगी।
जो चले गए दूर —
उन्हें मैंने नहीं रोका,
बस उनके पथ पर
एक दीपक रख आया हूँ।
अब न कोई प्रश्न है,
न कोई उत्तर शेष —
मैं मौन की भाषा में
अपनी अंतिम कविता लिख आया हूँ।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड