हे ओपेनहाइमर
मैं मनुष्यों की क्या बात करूँ
जब ग्रन्थों की गूढ़ गहराई भी
तुम्हारे समक्ष झुक जाती है
और ज्ञान की जटिल पुस्तकें
तुम्हें देखकर सहम जाती हैं।
तुम्हारी प्रतिभा का विस्तार
प्रशांत महासागर से गहरा, अपार
तुम्हारी महानता की परिभाषा
शब्दों से परे, असीमित, निरुपम आशा।
मैं सोचता हूँ, क्या लिखूँ ऐसा
जो तुम्हें पा जाऊँ
क्या पढ़ूँ ऐसा, तुझमें समा जाऊँ
तेरी गहराई का अंश बन जाऊँ।
हे विज्ञान के सूर्य, ओपेनहाइमर
तुमसे मिलना,सत्य का साक्षात्कार है
आनन्द की पराकाष्ठा है
तुम्हीं में मेरा अस्तित्व साकार।
प्रतीक झा 'ओप्पी'
चन्दौली, उत्तर प्रदेश