
कवि अभिषेक मिश्रा ‘बलिया’ की “बचपन की सुनहरी यादें” सिर्फ एक कविता नहीं,
बल्कि समय के उन पन्नों पर लौटने की पुकार है जहाँ हँसी बिन वजह थी और सपने बिन डर के।
मिट्टी की गुल्लक, कागज़ की नाव, दादी की कहानियाँ — सब इस रचना में ऐसे जीवंत हुए हैं,
जैसे बचपन खुद शब्दों का रूप लेकर लौट आया हो।
यह कविता हर उस दिल को छू जाती है जिसने कभी स्कूल की खिड़की से आसमान को देखा हो।
अभिषेक के शब्द बताते हैं —
“बचपन लौट नहीं सकता, पर उसकी रौशनी इंसानियत को अब भी रोशन करती है।”
बचपन की सुनहरी यादें
( बाल दिवस विशेष 2025)
बाल दिवस आया है, फिर से शोर मचाने को,
इस उम्र ने झकझोरा है, कुछ पीछे लौट जाने को।
वो दिन जब हम छोटे थे, ख़्वाब बड़े सजाते थे,
हर पल में था हँसी भरा, जो अब बस यादें लाते है।
वो मिट्टी की गुल्लक, जिसमें सपने झनकते थे,
वो कागज़ की नावें, जो बारिश में तैरते थे।
वो टूटा हुआ बल्ला, जिससे क्रिकेट खेलते थे,
और अम्मा की डाँट में भी, हम हँसकर मिलते थे।
न फोन था, न इंटरनेट, न कोई अजब कहानी थी,
बस दोस्तों की टोली, और मासूम सी जवानी थी।
वो स्कूल का बस्ता, जो कंधों को झुकाता था,
पर टीचर के आते ही, हर शोर रुक जाता था।
आज सोचा तो याद आया, वो आमों का बाग़ कहाँ,
वो गेंद जो छत पर थी, अब तक लौटी या नहीं भला।
वो दादी की कहानियाँ, वो गर्मी की रातें,
जहाँ परियाँ मुस्कुरातीं, और चाँद सुनाता बातें।
सच कहूँ, वो दिन रेशम से भी मुलायम थे,
जब हर छोटी खुशी में सपने सलामत थे।
अब बड़े होकर थक गए, इस दौड़ती ज़िंदगी से,
काश! फिर मिल जाएँ वो दिन, उस टूटी गुल्लक से।
मैं अभिषेक, आज भी उस नन्हे खुद को ढूँढता हूँ,
जो धूल में भी हँसता था, और हर चोट पर झूमता था।
कभी कागज़ की नावों में, कभी पेड़ों की छाँवों में,
वो बचपन की खुशबू, अब भी दिल की गलियों में।
कभी कक्षा की खिड़की से, सपनों को ताकता हूँ,
कभी नेहरू चाचा की बातों में, बचपन को तरासता हूँ।
वो दिन थे सच्चे, वो पल थे बड़े सुनहरे,
जो आज की भीड़ में, सबसे प्यारे और गहरे।
अब यादों में खोने से बढ़कर, भविष्य सँवारना है,
हर बच्चे के चेहरे पर, मुस्कान उतारना है।
ए दुनिया! तू धीरे चल, इन कलियों को खिलने दे,
ये देश के सपने हैं, इन्हें उम्मीद से मिलने दे।
बाल दिवस की बधाई हो, हर बच्चा अभिमान हो,
हर घर में हँसी की गूँज, हर दिल में आसमान हो।
कवि अभिषेक कहता है:
“बचपन लौट नहीं सकता, पर उसकी खुशबू साथ है,
जो दिल में बच्चा ज़िंदा रखे, वही सच्चा इंसान है।”
लेखक: अभिषेक मिश्रा 'बलिया'

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




