घुट-घुट के यूँ मरना मुझको,
मंज़ूर नहीं है !!
मैं देख हिमालय झुक जाऊँ,
मंज़ूर नहीं है !!
झुकना होगा झुक जाऊँगा,
कोई अकड़ नहीं है स्वभाव मेरा !!
पर हलके में मुझे ले ले कोई,
मंज़ूर नहीं है !!
मैं उस माटी का वंशज हूँ,
जिसमें प्रताप बलिदानी हुए !!
मैं रक्त तिलक उस यौवन का,
जिसमें योद्धा-क्षत्राणी हुए !!
क़ायर हों पर जयचंद मुझे
मंज़ूर नहीं है !!
शर्मिन्दा हो शर्मिन्दा लिखो,
यूँ अकड़ के चलना ठीक नहीं !!
खुद गलती करके ऐ कायर,
कहीं छिप के बैठना ठीक नहीं !!
लल्लू-पंजू छुटपंजियों के मुझे,
मुँह लगना मंज़ूर नहीं !!
तुलना इक शेर का शेर से हो,
अच्छा लगता है !!
रणभूमि में अर्जुन-दुर्योधन,
मन को जँचता है !!
तलवार से शीश कटे बेशक़,
पर युद्ध छोड़ ही भग जाऊँ,
मंज़ूर नहीं है !!
काव्य हाले-दिल वेदव्यास मिश्र की पैनी 👍कलम से..
सर्वाधिकार अधीन है