मत बैठ यूँ शोक में अर्जुन!
धरती काँप रही है, और
तू गांडीव रख बैठा है?
जिस युद्ध से भागेगा तू,
वहीं से तुझे पुकारेगा सत्य!
“कर्म कर! पर फल का मोह छोड़!”
कृष्ण की वाणी नहीं,
ये ब्रह्म की गर्जना है!
तू करता नहीं कुछ भी,
करवाया जाता है तुझसे —
और तू स्वयं को करता समझ बैठा है!
“न तू शरीर है, न यह युद्ध बाहर है!”
तू आत्मा है, और
यह महाभारत तेरे भीतर है!
तेरा राग दुर्योधन है,
तेरा मोह भीष्म है,
तेरी वासना कर्ण है,
तेरा भ्रम शिशुपाल है —
और तेरा सत्य? — बस एक कृष्ण है!
“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि!”
यह कोई कविता नहीं —
यह आग है आत्मा की!
जो जलाए तो राख कर दे —
तेरा अभिमान, तेरा शरीर,
तेरा ‘मैं’… सब कुछ!
“त्याग दे!”
हां, सब कुछ!
धर्म, अधर्म, कर्तव्य, संबंध —
सब सौंप दे उस कृष्ण को,
जो तेरे रथ की सवारी नहीं,
तेरे जीवन का सार है!
गीता, कोई ग्रंथ नहीं है!
ये विस्फोट है —
जिसे पढ़ो नहीं,
जिसमें फूट पड़ो!
क्योंकि जब जीवन
तेरे गले की हड्डी बन जाए —
तब कृष्ण, शंख नहीं —
चेतना बजाते हैं!
और सुन अर्जुन!
जो युद्ध तू आज छोड़ेगा,
वही युद्ध तुझसे तेरा बेटा लड़ेगा!
क्योंकि मोह का कर्ज
वंशानुगत होता है…
और गीता — उससे मुक्ति का एकमात्र मार्ग है!
और जो गीता को सुन लेता है…!
वो फिर युद्ध नहीं करता —
वो स्वयं युद्ध हो जाता है!”
हाँ! युद्ध!
ना शस्त्रों का, ना शत्रुओं का —
बल्कि उस ‘मैं’ का, जो तुझे तुझसे बाँध कर रखता है!
जो गीता को समझ ले…
वो जीतने नहीं जाता,
वो मिट जाने जाता है!
क्योंकि
जहाँ कृष्ण है — वहाँ तू नहीं!
और जहाँ तू है — वहाँ कृष्ण नहीं!
यह आखिरी नहीं…
यह आरंभ है — महाभारत के भीतर के महाभारत का!