एक तड़के सुबह...
धुंध की चुप चादर में,
बग़ीचे की राहों पर...
चल पड़ी मैं... अकेली।
हर क़दम... जैसे कोई दबी कहानी बुन रहा था,
न सूरज जागा था,
न रात ने विदा ली थी।
हर शाख़ पर ठहरी थी... हल्की सिहरन,
पत्तों पर ओस की बूंदें... काँप रही थीं।
हवा में तैरती थी कोई अधूरी दुआ,
जैसे बीती यादें... साँस ले रही थीं।
चुपचाप चलते-चलते पहुँची... एक बेंच तक,
जहाँ अक्सर... चिड़ियाँ गीत सुनाया करती थीं।
पर आज वहाँ...
थी एक काँपती आकृति,
जो जैसे ज़िंदगी से... ख़ामोशी में कुछ कह रही थी।
कम्बल में सिमटा... एक थका-हारा तन,
साँसें गहरी थीं...
पर होंठ... खामोश।
पास गई तो...
सुनी रुँधे गले की सिसकी,
जैसे दिल ही दिल से...
कर रहा हो कोई संवाद।
चेहरा... झुर्रियों से ढँका हुआ,
पर आँखें...
वे बोल रही थीं बहुत कुछ।
हर लकीर में छिपी थी...
एक दबी हुई कहानी —
कुछ भूले अरमान... कुछ टूटी पनाहें।
मैं चुप रही...
उसने भी कुछ नहीं कहा,
मगर मौन में जैसे...
सब कुछ कह दिया गया।
मैंने अपने आँचल से...
उसके आँसू पोंछे,
और उसकी काँपती हथेली को...
हल्के से थाम लिया।
वह शायद कोई बेघर था...
या हालातों का मारा,
कोई बिछड़ा अपना...
या वक़्त से हारा।
पर उस पल में...
वो अजनबी
लगने लगा जैसे...
कोई जाना-पहचाना साया।
धीरे-धीरे...
सूरज ने किरणें बिखेरीं,
धुंध ने...
अपना घूँघट हटा लिया।
पर उस बेंच पर ठहरी...
एक कहानी
मुझे ख़ामोशी से...
बहुत कुछ सिखा गई।
बातें न हुईं...
नाम भी न जाना,
फिर भी दिल ने...
उसे अपना माना।
शायद यूँ ही मिलते हैं कुछ लोग,
जो ख़ामोशी में भी
सुकून दे जाते हैं।


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
The Flower of Word by Vedvyas Mishra







