बस दर्द का गुबार है और कुछ नहीं
इश्क तो बुखार है और कुछ नही।
बस दूर से चमकता है स्वर्ण का हिरण
धोखा ये शानदार है और कुछ नहीं I
ब्याज की हर सांस पे कर्ज चुकाना है
हर पल ये उधार है और कुछ नहीं।
चढ़ गया सलीब पे इंसानियत की खातिर
वो असली गुनहगार है और कुछ नहीं ।
दास लगता है गले जो बेसबब ही आदमी
वो जहर बुझी कटार है और कुछ नहीं।
दिल का नहीं ज़ब रूह से कुछ वास्ता रहेगा
वह ज़िन्दगी बीमार है और कुछ नहीं II