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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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कविता की खुँटी

                    

ददरी मेला: माटी के मान, बलिया के शान

जहाँ गंगा बोले, वहाँ कविता जागे — अभिषेक मिश्रा की कलम से गूँजा बलिया का ददरी मेला

बलिया: भृगु ऋषि की पावन नगरी बलिया अपनी सांस्कृतिक विरासत, लोक परंपरा और अदम्य आस्था के लिए जानी जाती है।
इसी धरती पर सदियों से लगने वाला ददरी मेला केवल व्यापार या मनोरंजन का अवसर नहीं,
बल्कि यह जन-जन की भावना, श्रम और संस्कारों का संगम है।

युवा कवि अभिषेक मिश्रा ‘बलिया’ का अपनी मातृभूमि से गहरा लगाव हर शब्द में झलकता है।
बलिया की माटी, उसकी बोली, उसकी मिठास और उसकी आत्मा — सब कुछ इस कविता में साँस लेता है।
शायद यही कारण है कि कवि ने इस रचना को देशज भाषा में रचा,
ताकि यह सीधे बलियावासियों के दिलों और श्रद्धालुओं के भावों से जुड़ सके।

“ददरी मेला: माटी के मान, बलिया के शान”

जहाँ गंगा बोले गर्जन से,
जहाँ धरती में तेज समाइल बा,
जहाँ परंपरा ना मुरझाए,
ऊ धरती बलिया कहलाइल बा।

ई मेला ना सिर्फ़ उत्सव ह,
ई त गौरव के गाथा ह,
जब गंगा किनारे मचेला रौनक,
त मानो राष्ट्रभक्ति के परवाह ह!

ढोलक, मंजीरा, शंख गूंजे,
हर रग में लहर उठेला,
बाबा भृगु के आशीष से
बलिया फिर से जाग उठेला।

गुड़ही जलेबी, खाजा के मिठास,
हर गली में खुशबू घोलत ह,
मिना बाज़ार के रंग-बिरंगी छटा,
हर दिल में खुशी घोलत ह।

बच्चन के हँसी, बुढ़वन के याद,
हर दिल में उमंग जगावेला,
ई ददरी मेला, बलिया के
अभिमान बतावेला।

जहाँ बैल-भैंस के साथ
चलत मेहनत के मेला ह,
जहाँ पसीना बने पूजा,
ऊ धरती भृगु के बेला ह।

कितना बार समय बदलल ह,
कितना युग बदल गइल,
पर बलिया आजो कहे —
हम ना झुकम, ना मुरझाईल ह!

इहाँ जनमले सपूत उ हे,
जे फाँसी पर हँसके चढ़ल,
चन्द्रशेखर आजाद के नाम से
आजो गगन गूंज गइल!

ई मेला सिखावेला —
सौदा ना धन-दौलत के कर,
गर्व कर अपने परिश्रम पर,
जय बोल अपने जन-जन पर!

गंगा के लहर जब पाँव छुवे,
भक्ति अउर वीरता मिल जाला,
हर आँख में जोश भर जाला,
हर दिल में बलिया खिल जाला।

भृगु बाबा के नगरी में,
संस्कारन के दीप जले,
माटी बोले, “हमरा सपूत
आजो धरती पे वीर हले!”

ई ददरी मेला ना बस मेला ह,
ई इतिहास के साँस ह,
जहाँ श्रम, श्रद्धा, शौर्य,
तीनों के संग एहसास ह।

हर साल जब आवे सावन-भादो,
हर दिल में बस एक राग उठे,
बलिया बोले छाती ठोक —
“हमरा संस्कृति आजो जाग उठे!”

माँ गंगा के साक्षी में,
चल रहल संस्कारन के अभियान,
ददरी मेला — मात्र एगो मेला ना,
ई त बलिया के सम्मान, भारत के अभिमान ह!
जय हो बलिया, जय हो ददरी मेला!

~अभिषेक मिश्रा 'बलिया'




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (2)

+

मनोज कुमार सोनवानी "समदिल" said

वाह! अभिषेक जी, बहुत खूब 👌🌹 आपने ददरी मेला का इतना सुंदर जीवंत चित्रण किया है कि वहां की मिट्टी की खुशबू सांसों में आने लगीं। वहां के बाजार, लड्डू,खिलौने झूले,बैल भैंस, लोगों के परिश्रम और विभूतियों के पुरुषार्थ का स्मरण। अपनी रचना में सारी बातों को सजाकर कविता का वज़न बढ़ा दिया। क्या बात है 👌🙏🌹🌹

रीना कुमारी प्रजापत said

👌👌👍👍

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