चोरों की महफिल
डॉ.एच सी विपिन कुमार जैन "विख्यात"
भाग रहा था डंकी लाल,
अब ना कोई ठिकाना,
चोरों के हाथों से पिटकर,
था उसका बुरा ज़माना।
डाले बदल-बदलकर भी,
वो बच नहीं पाया,
मंकी लाल और उसके साथियों ने,
उसे घेर लिया,
हाय! जो चोर अब तक थे खुश,
वो सब हुए थे आग बबूला,
हमसे ही चोरी करता है!
इसे मारो, ये है फूला!"
डुगडुगी टूटी पड़ी थी,
बंदरों का गुस्सा था भारी,
मदारी की सारी हेकड़ी,
अब निकली थी प्यारी।
जो माल उसने हड़पा था,
वो सब निकल गया बाहर,
अब ना बची जेब में फूटी कौड़ी,
ना कोई उधार।
चोरों की महफिल में आज,
एक नया सबक मिला,
बाहर का चोर तो दिख जाए,
पर भीतर वाला छिपा।
डंकी लाल की ये दशा,
देखकर सब हंसे,
खुद ही चोर निकला,
अब कैसे वो फंसे।
यह मदारी का खेल था,
जो उसी पर भारी पड़ा,
चोरों की महफिल में ही,
उसका खेल था अड़ा।