बन्धुता का हाश्र
बंधुओ ने जब बंधुओं पर तान ली थी तलवार
अब होने को क्या रह गयीं थीं बात
ईर्ष्या ने मित्रभाव-प्रेमभाव मे जब लगा दी थी आग लालच ने कर दिया था आग मे घी का काज
अब होने को क्या रह गयीं थीं बात
बंधुओ ने जब बंधुओं पर तान ली थी तलवार
तृष्णा से छूट गया तृप्ति का हाथ
वासना से उपासना ही गयीं हार
अब होने को क्या रह गयी थी बात
बंधुओ ने जब बंधुओं पर तान ली थी तलवार
अपनो के खून से रंग लिए थे हाथ हर रिश्ता हर नाता धन का हुआ जब मोहताज
मंडी सजती है रिश्तों की खुले बाजार अब होने को क्या रह गयी थी बात
बंधुओ ने जब बंधुओं पर तान ली थी तलवार
होता जा रहा था बंधुता का ह्राश्र भाई के मीठे रिश्ते में पड़ गयी थी खटास
अब होने को क्या रह गयी थी बात
बंधुओ ने जब बंधुओं पर तान ली थी तलवार
✍अर्पिता पांडेय