करोड़ों खर्च करके भी
ख़ुशी नहीं खरीदी जा सकती
क्योंकि खुशियां पैसों में नहीं
बाहरी देख दिखावों में नहीं
अपितु आदमी के अंदर हीं हैं
बस अपनी उमनों को जगाने
की ज़रूरत है...
बाकि फिर तो शुभ मुहूर्त हीं
मुहूर्त है।
हजारों रुपए खर्च करके भी
लोगों को मज़ा नहीं आता
और ग़रीब के बच्चों को
तो अमीरों की दिवाली देख
कर मज़ा हीं मजा आ जाता है
दिवाली अब दियों की नहीं
एल ई डी लड़ियों वाली ही गई है
आपसी प्रेम भाव की नहीं
बल्कि रिल्स वाली हो गई है ।
जीवन की झूठी खुशी को
मिलावटी खुशी से दिखाया
जा रहा है।
सस्ती लोकप्रियता के लिए
ये सबकुछ किया जा रहा है।
मिलावट वाली हंसी को
दिखाई जा रही है
आदमी अब आदमी नहीं
रील बन गया है
चंद सिक्कों के लालच में
सड़क पर बिखरा हुआ कील
बन रहा है।
बिना मतलब का रील बन रहा है
बिना मतलब का सिर खप रहा है
बिना मतलब का रील बन रहा है..