कितने कागज के फुल बिखरे पड़े है राह पर
रंगीबेरंगी
दूर दूर तक कही पेड़ नजर नहीं आते
ना पंछीयोंकी कलकलाहट
गंधहीन
गंधहीन मैं चला जा रहा हूँ
कोई गीत गुणगुणा रहा हूँ l
कितने शव लावारिश रौंध पड़े है रणभूमि पर
अस्तव्यस्त
दूर दूर तक कहीं गिद्ध नजर नहीं आते
ना भूखे भेड़ियोंकी कातिल नजरे
रसहीन
रसहीन मैं चला जा रहा हूँ
कोई गीत गुणगुणा रहा हूँ l
कितने बाजूओंकी ताकत हार चुकी है मृत्युक्षेत्र पर
बेबस
दूर दूर तक कहीं अहंकार की चीख नजर नहीं आती
ना अभिमान की नपुसंक गूंज
जीवहीन
जीवहीन मैं चला जा रहा हूँ
कोई गीत गुणगुणा रहा हूँ l
✍️ प्रभाकर, मुंबई ✍️