अमर उजाला के मेरे अल्फाज़ में मेरी एक रचना
जिससे मिले इल्म की भीख लेनी पड़ती है
हर किसी से कुछ सीख लेनी पड़ती है
आदमी ऐसे ही नहीं होता है कभी मोतबर
खूब बुजुर्गों की आशीष लेनी पड़ती है
जो मिला है उसमे खुश,खो गया रोना क्या
दर्द में हंसने की तमीज लेनी पड़ती है
अपनी ही खातिर हम सब जी रहे हैं जिन्दगी
बुरी नजर बचाने ताबीज लेनी पड़ती है
सूरत और सीरत से शहंशाह जुदा नहीं दास
पर शान की खातिर कनीज लेनी पड़ती है