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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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The Flower of Word by Vedvyas MishraThe Flower of Word by Vedvyas Mishra
Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

भाभी — जो चालाकी करती थी

वो घर में आई सज़-धज़कर,
पर उसकी आँखों में स्नेह नहीं —
बस सत्ता की भूख थी।
पाँव नहीं पड़े किसी के,
क्योंकि उसे झुकना नहीं आता था।

उसने रिश्तों को सींचा नहीं,
बल्कि तौलना सीखा —
कौन कितना काम करता है,
कौन कब उसके आगे झुकता है।

घर में आई तो जैसे दीये बुझे,
हँसी कम हुई, दीवारें सुनने लगीं।

ननद की चूड़ियों की खनक उसे खटकती थी,
जैसे कोई अपनी हार की गूंज सुन रही हो।

उसने कहा —
“आपकी बहन बहुत तेज़ है,
हर बात में टाँग अड़ाती है।
मुझे छोटा समझती है,
कभी सम्मान नहीं देती…”

और पिता —
जो पहले बेटी के लिए डटकर खड़े थे,
धीरे-धीरे बहू की बातों में
बेटी को ही दोष देने लगे।

भाई —
जिसे उस बहन ने बचपन में काँधे पर खिलाया था,
अब बात-बात पर भाभी के शब्द दोहराने लगा
“दीदी को घर में कम रहना चाहिए,
अब ये घर मेरा है…”

भाभी को जीतना नहीं था
रिश्ते —
बल्कि घर का ‘राज’।
और राज वो पा चुकी थी —
किसी के प्रेम को ख़त्म कर के।

भाई को बना लिया मोहरा,
हर रिश्ते को तोड़ने का औज़ार।
देवरानी का मुस्कुराना भी,
उसे षड्यंत्र लगता था।

वो चार रोटियाँ बनाने से
अपना ‘स्वाभिमान’ बचाने लगी,
पर चार रिश्ते तोड़ने में
उसे कभी थकावट नहीं हुई।

वो बातों की मिश्री में
विष मिलाकर परोसती रही —
और हर दिन,
किसी ना किसी को छोटा साबित करती रही।

पर समय चुप नहीं था…
जिस घर को उसने “अपना किला” समझा,
वहीं दीवारें एक दिन बोल उठीं।

घर में आई थी बहू, पर बन गई तनाव की वजह

आई थी एक लक्ष्मी बनकर —
पर रोज़ घर की शांति लूट लेती थी।
सिंदूर था माथे पर —
पर हर बात में आग घोलती थी।

माँ —
“मैंने बहू नहीं, बेटी चाही थी।
पर यहाँ तो मेरा हर आदेश
‘दकियानूसी सोच’ कहलाता है।
अब रसोई भी मेरी नहीं रही —
जहाँ बेटियाँ मुस्कुराती थीं,
अब वहाँ ताने जलते हैं।”

पिता —
“घर कभी इतना चुप नहीं था…
अब बहू की बातें सुन
बेटी की सच्चाई भी झूठ लगती है।
मैंने तो बेटे के लिए सखा माँगा था,
पर घर बँट रहा है —
और मैं कुछ कर नहीं पा रहा।”

पति —
“तुमसे प्रेम किया था,
पर अब डरने लगा हूँ —
किसी से बात कर लूँ तो तुम चिढ़ जाती हो,
घरवालों के बारे में ज़हर उगलती हो।
कभी-कभी सोचता हूँ —
कहीं तुमने मुझसे नहीं,
मेरे ‘घर’ से शादी की थी?”

ननद —
“मेरे हर शब्द में तुम्हें ताना दिखता है,
मेरी हँसी भी चुभती है तुम्हें।
मैंने भाभी मान सम्मान दिया —
तुमने साज़िश बना दी।
अब भाई भी पराया लगने लगा है…”

देवरानी —
“घर का छोटा हिस्सा पाकर भी
मैं खुश रहना चाहती हूँ।
पर भाभी हर वक़्त
मुझे नीचा दिखाने की चाल में रहती हैं।
ना बात में मिठास, ना दिल में अपनापन।”

देवर —
“बड़ी भाभी समझकर जो सम्मान दिया,
वो हर बार जहर बनकर लौटा।
घर में एक वक़्त हँसी की जगह थी,
अब डर की दीवारें हैं —
जहाँ साजिशें साँस लेती हैं।”

पति ने जब अकेलेपन की घुटन महसूस की,
तो उसकी चतुराई बोझ बन गई।

देवरानी जिसकी हँसी से वो जलती थी,
वो सबसे प्यारी बन गई —
बिना चालाकी, बस अपनी सहजता से।

“जो चालाकी से जीतती है —
वो समय से हार जाती है।”




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (4)

+

Sharda Gupta said

@reena ji ye kavita maine aapke liye our apni life pe likhi hopefully aapko pasand ayegi

रीना कुमारी प्रजापत said

Thanks shradha ji, बहुत सुन्दर लिखा है बहुत बढ़िया,मुझे पसंद आई, waise kya hum jaan skte hai aap isme nanad hai ya devrani

रीना कुमारी प्रजापत said

Sorry sharda ji main baar baar apko shradha khti hu sorry sharda aaj thik se dekha naam apka😀

Sharda Gupta said

Devrani hahaha

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