मैंने चाहा —
कि तुम हर शाम लौटो मेरे मौन में,
न कहो कुछ, बस देखो —
जैसे मेरी चुप्पी तुम्हारी भाषा हो।
मैंने चाहा —
कि तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर
अपने सारे दिन को भूल जाऊँ,
और तुम न पूछो —
कि क्या बनाया खाने में।
मैंने चाहा —
कि ‘पत्नी’ कहे जाने से पहले
‘स्त्री’ समझी जाऊँ,
जिसकी इच्छाएँ सिर्फ देह तक सीमित न हों।
पर तुम लाए थे एक सूचि,
संस्कारों की,
मर्यादाओं की,
और एक चुप्प स्वीकृति की —
जो मेरी माँ ने कभी सिखाई नहीं थी।
तुमने चाहा —
मैं हर त्योहार में मुस्कराऊँ,
हर रिश्तेदार को सिर झुकाकर नमस्ते करूँ,
हर कटाक्ष पर मौन रहूँ,
और हर रात तुम्हारे साथ बिछ जाऊँ —
चाहे आत्मा करवट बदलती रहे।
मैंने चाहा —
कि यह बंधन प्रेम का हो —
न कि प्रदर्शन का, न ही त्याग का व्यापार।
पर हमने जो बाँधा था,
वो बंधन नहीं,
एक मौन-व्यवस्था थी —
जहाँ प्रेम अनिवार्य नहीं,
अनुमानित था।
शादी —
दो आत्माओं का संग नहीं थी,
बल्कि दो अपेक्षाओं की मुठभेड़ थी।
और जब तुम्हारी अपेक्षाएँ
मेरे सपनों से भिड़ीं —
तो न कोई चिल्लाया,
न कोई रोया।
बस,
एक सुबह उठकर मैंने
तुम्हारे तकिये पर
एक चिट्ठी रख दी:
“मैं जा रही हूँ,
तुमसे नहीं —
उस औरत से जो मैं कभी थी,
उसे वापस लाने।”