बदल जातें हैं लोग
मौका और दस्तूर देख कर
हम रह जातें है अवाक
लोगों की ये फितूर देखकर।
आंखों को याकि नहीं होता
की ये वही सक्स है
जो चंद दिनों पहले कुछ और था
अब कुछ और लग रहा है।
गिरगिट भी शर्मा जाए
कि वह जिस तरह रंग बदल रहा है।
रिश्तों के पैमाने अब बदल से गयें हैं
बनकर दोस्त लोग खंजर घोंप रहें हैं।
परायों की तो बात छोड़िए
लोग अपनों को भी नहीं बक्श रहें हैं।
रिश्तों की नंगा नाच सारे आम कर रहें हैं।
किस पे करें भरोसा........
बागवा खुद हीं गुल मसल रहा है।
रिश्तों की आड़ में सब कुछ चल रहा है
गिरगिट भी शर्मा जाए कि किस
तरह से लोग रंग रूप नीति और नीयत
बदल रहें हैं।
बन के झूठे दोस्त झूठी दोस्ती निभा
रहें हैं।
सीतमगार सनम सिर्फ सितम ढाह रहें हैं..
आज़काल लोग गिरगिट की तरह पल पल
बदल रहें हैं..
आज़ कल लोग गिरगिट की तरह पल पल बदल रहें हैं...