आत्मसंघर्ष की आवाज़
कई रातें जागते हुए सोचा मैंने
कभी ख़ुद से ही बातें की
कभी ख़ुद से ही रूठा रहा
ख़ुद को हराने की चाहत थी
पर जीतने की हसरत भी कम न थी
जब साथी बने मेरे दुश्मन
और दुश्मन बने मेरे साथी
मैंने मुस्कराते हुए देखा
ख़ुद को ही समझाया
कि मेरे दुश्मन तो बस
मेरे ही अंदर छिपे हैं
कभी लड़ा मैं ख़ुद से
कभी मनाया ख़ुद को
दोस्तों की बातों से चुभा जो
वो ज़ख्म भी तो ख़ुद ही लगाया मैंने
उनसे तो कोई दुश्मनी नहीं थी
लोग कहते हैं कि दुश्मन बाहर हैं
पर मैं जानता हूँ
कि असली जंग तो अंदर है
ख़ुद के खिलाफ़, ख़ुद के साथ
क्योंकि मैं ख़ुद ही अपना दोस्त हूँ
और ख़ुद ही अपना दुश्मन
चलते-चलते जो रिश्ते छूटे
वो दर्द भी तो ख़ुद ने चुना था
कभी दोस्ती निभाई, कभी दुश्मनी
पर जो भी किया,
वो सिर्फ़ ख़ुद से किया
आकाश की ऊँचाइयों में
जब देखा मैंने अपनों को
समझा तब, कि ये रास्ते
बस अलग-अलग थे
मुझे कोई शिकवा नहीं,
न कोई शिकायत
क्योंकि मैं जानता हूँ
कि सबसे बड़ी लड़ाई
ख़ुद से है, ख़ुद के लिए है
कभी हारा हूँ, तो कभी जीता
पर इस सफ़र में,
मैंने ख़ुद को पाया है
ख़ुद से मिला हूँ
ख़ुद से ही सीखा हूँ
कि असली दुश्मन तो
बस ख़ुद ही होता है
दुश्मनी किसी से भी नहीं
सिर्फ़ एक दोस्ती है
ख़ुद से, ख़ुद के साथ
क्योंकि
आदमी का दुश्मन सिर्फ़ आदमी!
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अशोक मिश्र
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