आप से कब खफ़ा रहा हूं मैं,
अपने से खुद जुदा रहा हूं मैं l
जो भी पाया है उसे कहना क्या,
नाख़ुदा दिल का बन रहा हूं मैं l
ना जाने कब कहां गुम हो जाऊँ,
जिस गली से से गुज़र रहा हूं मैं l
ज़ख्म दिल के भरे नहीं हैं अभी,
उसको हँस के छुपा रहा हूं मैं l
कोई शिकवा नहीं आरज़ू कोई,
बिखरी चीजें सजा रहा हूं मैं l
ख्वाब आंखों में टूटते क्यूँ हैं,
बात तारों से कर रहा हूं मैं l
धूप सहकर भी मुस्कुराते रहे,
पांव के आबले छुपा रहा हूं मैं l
जिंदगी रोज आजमाती "विजय",
जिंदगी को परख रहा हूं मैं l
विजय प्रकाश श्रीवास्तव (c)