वो ग़र बे–वफ़ाई को भी, वफ़ा कहते हैं..
तो जाने मुहब्बत को फिर, क्या कहते हैं..।
वो नए ज़माने के, ज़रा भी कायल नहीं..
दरवेश की, दुआओं को ही दवा कहते हैं..।
हमारी सजाओं पर, अब अफसोस रहने भी दीजिए..
इसे कुछ और नहीं बस, खुदा की रज़ा कहते हैं..।
थक–हार के लौट आया, अदालत से उसकी..
अब जान सका, इसी को तो दुनिया कहते हैं..।
ज़माना ना जाने, क्या मतलब निकालेगा अब..
तभी बात दिल की हम, कुछ आहिस्ता कहते हैं..।
पवन कुमार "क्षितिज"