तुम आ ही जाते हो...
यामिनी के संग..
ढ़ेर सारा उजास लिए..
तुम्हें देखते ही,
तुम्हारी चांदनी की
स्मृति जाल मे उलझकर,
उर तिमिर मन से ..
कोसों दूर चला जाता है,
मैं फिर से..
अपनी हथेलियों में
चांदनी को भर भरकर..
आंंखों की कठोरियों मे ..
छुपा लेती हुं..
आत्ममुग्ध होकर,
सीमा विहीन...
स्मृतियों के पगडंडियों में..
रजत किरणों को छू छूकर,
तुम्हारे साथ - साथ चलती हुं
बहुत देर तक हंसती हुं...
जाने इसी बीच कब तुम..
मेरे बालों को भी छू गए..
उम्र का हिसाब कर गए..
अब जब..
बंद हुए दुख के सब करघे,
दुर्दिन भी अब रीत गए..
मिलन के संस्मरण
नयनों में भरकर
तुमको ही तो
मन की बातें बताती हुं..
स्वप्नों मे भी साथ तुम्हारे ही..
सिन्धु अनंत पार करती हुं..
रात से प्रातःतक..
तुम्हारे ही साथ जगती हुं..
शब्दों मे प्रीत दिखाती हुं..।
- नवनीत कमल
जगदलपुर छ.ग.