दृष्टि की दूरी
✍️ R.P. Mishra
"कुछ रिश्ते कभी मिलते नहीं — बस समानांतर बहते रहते हैं, जैसे नदी के दो किनारे या रेल की दो पटरियाँ।"
नदी के विपरीत किनारों पर खड़े दो वृक्ष, वर्षों से एक-दूसरे की छाया में आने का स्वप्न देखते हैं। उनके बीच बहती नदी, समय और परिस्थितियों की प्रतीक बन चुकी है। हवाओं की लय में वे संवाद करते हैं, पत्तों की सरसराहट में एक मौन संबंध पनपता है। वे मिलना चाहते हैं, लेकिन हर बार जल की धारा उन्हें दूर कर देती है। जब बाढ़ आती है और एक किनारा कटकर बह जाता है, तो दूसरा बस निःशब्द, असहाय खड़ा रह जाता है।
मानव जीवन भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। हम चारों ओर बहुत से लोगों को देखते हैं — अपने, पराए, सहयोगी, विरोधी। कुछ साथ देने का आश्वासन देते हैं, कुछ भावनात्मक जुड़ाव का भरोसा जगाते हैं। पर जब जीवन की धारा उफान पर होती है, तब अधिकतर लोग मात्र दर्शक बन जाते हैं।
हम भी उन्हें वैसे ही देखते रहते हैं — जैसे स्टेशन की पटरियाँ जो साथ-साथ चलती हैं लेकिन कभी एक नहीं होतीं। संबंधों में निकटता का भ्रम बना रहता है, परंतु भीतर ही भीतर दूरी की दीवार खड़ी रहती है।
आज के दौर में यह दूरी और गहरी हो गई है। अब इंसान केवल देखता है — दूसरों को नहीं, खुद को भी नहीं। वह सिर्फ़ तमाशबीन रह गया है, संवेदनाओं से कटकर, जुड़ाव से विमुख।
शायद यही हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है — देखना तो बहुत है, पर महसूस कुछ नहीं होता।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




