हे मानव! तू कब से सोया है,
जिस वटवृक्ष तले तू रोया है,
वही अब धधकता अंगार बना —
तेरे ही स्वप्नों का ग़ुनहगार बना।
चाँदनी जो बहती थी नर्म नदी-सी,
अब बूँद-बूँद में घुली जलन सी।
कोयल की तान अब मौन हुई —
हर शाख़ किसी छाँव की चाह बनी।
पहाड़ों का सीना जो श्वेत था कभी,
अब खोद डाला तूने स्वर्ण की तलब में।
वो हवाएँ जो झूला झुलाती थीं,
आज धुएँ में दम तोड़ जाती हैं।
तूने आकाश छूने को
धरती को कुचला है बारंबार,
अब न भोर की बयार शीतल रही,
न सावन की बूँदों में वो प्यार।
हे मिट्टी के बेटे! कब लौटेगा तू,
उस वृंदावन को फिर संजोएगा तू?
जहाँ पत्ते भी गीत सुनाते थे,
और सूरज ममता से मुस्काते थे।
अब भी समय है, थम जा ज़रा —
फिर से कण-कण में देवता जगा।
वृक्षों से क्षमा माँग, जल से व्रत ले —
कि फिर से प्रकृति, तुझसे प्रेम कर सके।