हवाएं भी अब,शोर मचाने लगीं हैं
दरिया गरजने और डराने लगीं हैं
सुर्खियां बन गयीं हैं, जलजलों का आना
आग तो हरियाली को,जलाने लगीं हैं
गरम हो रही है, धरती का मिजाज
बर्फ़ की चट्टानों को, पिघलाने लगीं हैं
बदल रही है चाल, ऋतुओं का, मौसमों का
वजूद दुनिया का,अब,खतरे में इन लगीं हैं
शायद, ईश्वर को अब, नवसृजन की तलाश है
पुराने अस्तित्वों को, धीरे धीरे मिटाने लगीं हैं।
सर्वाधिकार अधीन है