पहली बार जो पाँव पड़े थे,
उस आँगन की सीढ़ियों पर,
मन तो जैसे रह गया था
पीछे, नैहर की पीढ़ियों पर।
ओस भरी वो सुबहें याद आईं,
माँ की पुकार, चूल्हे की आग,
भाई की हँसी, बापू की बातें,
छोटी-छोटी वो मीठी लाग।
यहाँ हर चीज़ है नई, अनजानी,
रिश्ते भी जैसे काँच से कोमल,
मुस्कान ओढ़ के चलती हूँ मैं,
भीतर रिसता है कोई पल।
थाल में जब पहला ग्रास रखा,
माँ के हाथों की रोटी याद आई,
सासू माँ ने जो चुपके से देखा,
उसमें भी माँ सी ममता छाई।
हर रस्म निभा रही हूँ चुपचाप,
पर मन अब भी नैहर में भटके,
दीदी की चूड़ियाँ, सहेलियों की बातों में,
कुछ पल आँखों से छलक के लटके।
ससुराल भी अब धीरे-धीरे
घर सा लगने लगा है मुझे,
पर नैहर की वो खुली हवाएँ
अब भी बुलाती हैं हर पल मुझे।
नई सोच है, नए रिश्ते हैं,
फिर भी अपनी जड़ें नहीं भूली,
नैहर की माटी में जो खिली थी,
अब ससुराल की मिट्टी में भी फूलूँ पूरी।