ये कौन मेरी पलकों पे, चुपके से ख़्वाब रख गया..
आसमान में सितारों की जगह, महताब रख गया..।
इस चमन में अबके, बहारें तो कुछ मेहरबां न थीं...
वो दिलरुबा था मेरा, जो कांटों में ग़ुलाब रख गया..।
ये ज़िंदगी तो बे–खुदी में, चलती रही किसी तरह..
चुपके से मगर वक़्त, सांसों का हिसाब रख गया..।
मेरे नज़र में थी, हीरे जवाहरात के महलों की नगरी..
ये कौन बड़ी नफासत से, एक मुठ्ठी तुराब* रख गया..।
कि अंधेरों में भी रहने का, सिफ़त आ गया हमको..
फिर ये जाने कौन इन गलियों में आफ़्ताब रख गया..।
* मिट्टी, राख
पवन कुमार "क्षितिज"