पुरवाई जब से यादों की चलीं हैं
दर्द और यातनाएं बढ़ी हैं
क्या कहें कैसे करके जी रहे हैं
भाग्य पर आस्थाएं पली हैं
कुछतो उसकी जिद आड़े आ गई
कुछ हमारी कमी भी रही हैं
अश्क आसानी से अब आते नहीं हैं
आंखे अब धुंधली हो चली हैं
दास अब तो भीड़ और शोर के बीच
आदमी को तन्हाइयां मिली हैंII