भीड़ में उँगली छुड़ाना बहुत मंहगा पड़ा।
घर पहले ही छुटा घाट का पता ना प़डा।।
जिंदगी ने रास्ते मोड़े अपने पीछे रह गए।
कपड़े लत्ते किधर पड़े सफर मंहगा प़डा।।
कुरीतियों में बाँध कर भगवा का गान कर।
धक्का-मुक्की के दौर में स्नान मंहगा पड़ा।।
मेरी बर्बादी के जिक्र मे थम न सके आँसू।
आस्था में अंधे रह कर मोक्ष मंहगा पड़ा।।
- उपदेश कुमार शाक्यवार 'उपदेश'
गाजियाबाद