उगे उम्मीद की तरह... टूटन से ढलने लगे l
लोग ठिठक के ठहर क्या गए घर चलने लगे ll
हाथ - पाँव रहित देह में... न जाने क्या कमाल हुआ,
घर गुलजार हुए ठिकाने बदलने लगे l
नींव से बैर रहा ज़माने को एक अरसे से,
इत्तेफाकन घर.... अब घर से सम्भलने लगेl
दहलीज पर सबके खड़ा है एक अनजान शख्स,
जान- पहचान में लोग अपनों से जलने लगेl
दुनियां ने दिखलाई है करामातें सबकी,
अच्छा हुआ हम खुद को अच्छे लगने लगे l
स्वारथ का सौदा अकारथ हुआ मुक़्क़मल यारों,
खुद को खरीद - बेच के खुद को ठगने लगे l
सोच में रूहानी सच कुछ उतरा ऐसे,
आँखें नींद से बंद हुईं और खयालात जगने लगे l
-सिद्धार्थ गोरखपुरी