मैंने शब्दों में गुलाब रखे —
तुमने काँटों की तलाश की।
मैंने मौन को आदर कहा —
तुमने उसे डर समझ लिया।
मैंने तुम्हें ऊँचा समझकर
नीचे से देखा था कभी,
तुमने वही कोण पकड़ लिया
और खुद को “राजा” समझ लिया।
तुम्हारी आदत है —
इज़्ज़त को कमज़ोरी समझने की,
और स्त्री के आत्म-संयम को
“ज़रूरत” का नाम देने की।
शादी से पहले —
तुम्हें “cool” लड़की चाहिए थी,
ज़िन्दगी में spice, बातें nice,
और हँसी जो तुम्हारी ego के साथ rhyme करे।
शादी के बाद —
तुम्हें वही लड़की चाहिए
जो ATM भी हो,
और तुम्हारे tantrums की punching bag भी।
तुम भूल गए —
कि जो स्त्री प्रेम करती है,
वो देवी नहीं,
एक तपस्विनी होती है।
और जब कोई तपस्विनी
अपना त्रिशूल उठाती है,
तो तुम्हारी तथाकथित “औक़ात”
बस एक परछाईं बनकर रह जाती है।
मुझे अब समझ आया —
कुछ लोगों को इज़्ज़त नहीं चाहिए,
उन्हें अनुचरी चाहिए —
जो उनके अहंकार को फूल पहनाए,
और उनके झूठ को सत्य का लेप लगाए।
तो सुनो —
अब मैं ना दासी हूँ,
ना देवी हूँ,
ना ही तुम्हारी सुविधा के लिए
अपना स्वर, स्वरूप, या स्वाभिमान त्यागने वाली कोई “Ideal” औरत।
अब अगर मेरी इज़्ज़त तुम्हें रास नहीं आती —
तो चिंता मत करो,
अब मैं भी वही भाषा बोलूँगी जो तुम्हें पचती है।
तुमको “शब्द” नहीं भाते थे — अब “स्वर” से जलोगे।
तुमको “आदर” नहीं जँचा — अब “उत्तर” से डरोगे।
तुमको जो चाहिए था — वो मैं कभी थी ही नहीं।
और जो मैं हूँ — उसकी तुम्हें आदत नहीं।