कोई ऐसा आ जाए जो नाम मेरा पुकारे,
भीड़ में भी देखे, और सिर्फ़ मुझे निहारे।
जिसे छू न सकूँ मैं, पर जो साँसों में बस जाए,
जो दर्द से न डरे, और अश्क मेरा उतारे।
जो कहे — “तू लड़की है, तू कोई गुन्हा नहीं”,
जो मेरी हर ख़ामोशी को चीख़ बन के उबारे।
जिसे देख के लगे मैं कोई इक जिस्म नहीं हूँ,
जो रूह के पन्नों पर मेरा होना सँवारे।
जो देखे मुझे वैसी — जैसी मैं डर से छुपी हूँ,
जो खोल के मेरी परतें, मुझे फिर से उघारे।
जो मेरे थक चुके दिल में कोई हरकत भर दे,
जो ‘औरत’ कह के नहीं, मुझे नाम से पुकारे।
जो मुझमें छुपे ‘मैं’ को फिर से जगा दे यूँ ही,
कि मैं भी कह सकूँ — हाँ, मैं भी लड़की हूँ… सारे।
कोई ऐसा आ जाए जो नाम मेरा पुकारे,
भीड़ में भी देखे, और सिर्फ़ मुझे निहारे।