खुदा तेरी निगाहों में, मेरी खताओं का हिसाब क्या..
अश्क तो बाकी नहीं, फिर आंखों में सैलाब क्या..।
कुछ दिल के मसले थे, कि रात जागने में गुज़र गई..
आंखों में जो नींद नहीं तो, ख्यालों के ये ख़्वाब क्या..।
माना कि सितारों से कभी, आसमां रौशन होता नहीं..
मगर ये जो ना हों तो, फिर अकेला वो महताब क्या..।
कि लिखा है किस्मत में, अपनी आरजूओं का अंज़ाम यहां..
फिर हर धड़कन और, हर सांस का हिसाब क्या..।
कुछ वक्त हुआ, ये आंखे बेनूर नज़र आती है मुझको..
उनमें डूबने को समंदर नहीं तो, फिर मयखाने की शराब क्या..।
पवन कुमार "क्षितिज"