रात को रात से, गूफ्तगू की मैंने..
चांद सितारों की, आरज़ू की मैने..।
बगैर बयां के भी, हालात रूबरू थे..
ज़िंदगी कहां कहां से, ऱफ़ू की मैने..।
अंधेरों के आगे भी, जो अंधेरे निकले..
फिर ज़िंदगी किसी तरह, जुगनू की मैने..
फूलों से खुशबूओं के, जो साए मिट गए..
तो फिज़ा में तेरे बदन की, ख़ुशबू की मैने..।
उनकी नींद के बड़े, नाज़ुक मिजाज़ थे यारो..
फिर बेवजह ही, ख़्वाबों की जुस्तजू की मैने..।
पवन कुमार "क्षितिज"