जीओ उनके लिए
मेरे जीने की आस जिंदगी से कोसो दूर चली गयी थी कि अब मेरा कौन है ? मैं किसके लिए अपना आंचल पसारुंगा ? पर देखा-लोक-लोचन में असीम वेदना। तब मेरा ह्रदय मर्मातक हो गया , फिर मुझे ख्याल आया कि अब मुझे जीना होगा , हां अपने स्वार्थ के लिए न सही ,परमार्थ के लिए ही ।
मैं जमाने का निकृष्ट था तब देखा उस सूर्य को कि वह निःस्वार्थ भाव से कालिमा में लालिमा फैला रहा है तो क्यों न मैं भी उसके सदृश बनूं ।भलामानुष वन सुप्त मनुष्यत्व को जागृत करुं। मैं शनै शनै सद मानुष के आंखों से देखा-लोग असहा दर्द से विकल है उनपर ग़ म व दर्दों का पहाड़ टूट पड़ा है और चक्षु जल ही जलधि बन पड़ी हैं फिर तो मैं एक पल के लिए विस्मित
हो गया । मेरा कलेजा मुंह को आने लगा।परन्तु दुसरे क्षण वही कलेजा ठंडा होता गया और मैंने चक्षु जल से बने जल धि को रोक दिया ।क्योंकि तब तक मैं भी दुनिया का एक अंश बन गया था । जब तक मेरी सांसें चली.. तब तक मैं उनके लिए आंचल पसारा
किन्तु अब मेरी सांसे लड़ खड़ाने लगी हैं , जो मैंने उठाए थे ग़म व दर्दों के पहाड़ से भार को वह पुनः गिरने लगा है ।
अतः हे भाई !अब मैं उनके लिए तुम्हारे पास , आस लेकर आँचल पसारता हूँ ... और कहता हूँ तुम उन अंधों के आंख बन जाओ ,तुम उन लंगड़ो के पैर बन जाओ और जियो 'उनके लिए' . क्या तुम उनके लिए जी सकोगे ? या तुम भी उन जन्मा न्धों के सदृश काम (वासना) में अंधे बने रहोगे ?
राष्ट्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –
' जीना तो है उसी का ,
जिसने यह राज़ जाना है।
है काम आदमी का ,
औरों के काम आना है ।।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




