ज़िंदगी मासिक किश्तों पर, दारोमदार हो गई..
सांसें चुकाते चुकाते ही, देखिए उधार हो गई..।
बहियों में जो लिखा था,सब सामने आ खड़ा हुआ..
अब हया भी तो, मिजाज़ बदलकर बाज़ार हो गई..।
बहुत दिनों बाद तेरे घर के सामने से, गुज़रा था मैं..
खुले हुए आंगन में कब से, नई कोई दीवार हो गई..।
कभी तो इस शहर की, नस नस से वाक़िफ थे हम..
आज क्या हुआ जो, अजनबी हर राह-गुज़ार हो गई..।
ज़माने में हर रोज़ मैं खुद को, साबित करता ही रहा..
हंसी से जो छुप गई, वो एक आंसू से इज़हार हो गई..।
पवन कुमार "क्षितिज"