मैंने
तेरे नाम को कभी नहीं पुकारा —
न शब्दों में,
न शंखों में,
न किसी जपमाला की आवाज़ में।
मैं बस
एक चुप्पी ओढ़ कर बैठा रहा
अपनी ही साँस के पास —
और सुना
कैसे हर धड़कन
तेरा नाम बिना बोले दोहराती है।
लोग तुझे
मंदिर की आरती में ढूँढते रहे,
मैंने तुझे
अपने छाती के बाएँ कोने में पाया —
वहाँ,
जहाँ कोई देवता नहीं,
सिर्फ़ इंतज़ार बसता है।
तू ईश्वर था —
पर मेरे लिए
तू वह थकावट था
जो हर शाम
तेरी याद बनकर उतरती थी
मेरे कंधों पर।
मैंने
तेरे नाम की जगह
अपनी धड़कनों में खोजा तुझे —
क्योंकि नाम…
तो अक्सर बदल जाते हैं,
पर जो धड़कता है,
वही सच्चा होता है।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड