हरियाली की चादर ओढ़े,
धरा मुस्काए मंद-मंद,
नभ में उड़े कपोत स्वच्छंद,
बहती पवन कहे अनंत।
पेड़ों की शाखों में गीत,
गाते हैं कोयल, पपीहे मीत,
फूलों की मुस्कान में बसी,
प्रेम की भाषा, कोमल रीत।
नदियाँ गाती झरनों संग,
पत्थर भी पिघलते भावों में,
हर कण में छिपा है जीवन,
प्रकृति बोलती है तानों में।
सावन बरसे अमृत बनकर,
रंग भरे हर साँस में,
मानव तू क्यों है इतना मौन?
प्रकृति पुकारे हर पास में।
चलो फिर से मिट्टी को छू लें,
नीले अम्बर में स्वप्न बुनें,
प्रकृति को मां कह पुकारें,
उसकी बाँहों में फिर झूलें।