गुज़रते वक़्त से सीखा है बस यही हम ने,
गए जो मौसम, वो फिर लौट कर नहीं आते।
आज हर शख़्स ख़ुद में सिमट गया ऐसा,
जहाँ की भीड़ में अपने नज़र नहीं आते।
लहू लहू है हवाओं में, ज़हर घुला सा,
महकते फूल भी अब क्यों सहर नहीं आते।
मकान ऊँचे हुए, रौशन हुईं गली-कूचे,
मगर दिलों में उजाले बसर नहीं आते।
हक़ीक़तों से गिला है कि चुप नहीं रहते,
ख़्वाब आँखों में आकर भी डर नहीं आते।
मुहब्बतें भी यहाँ सौदागरी में ढलकर,
वफ़ा के रंग हमें अब निखर नहीं आते।
डाॅ फ़ौज़िया नसीम शाद