कभी प्यासे का जल,
कभी नीलकंठ का हलाहल लगती हो,
कभी केसर की फसल तो कभी संगमरमर का महल लगती हो,
सच कहता हूं तुम हर रोज एक मुकम्मल गजल लगती हो।
---- कमलकांत घिरी
New रचनाकारों के अनुरोध पर डुप्लीकेट रचना को हटाने के लिए डैशबोर्ड में अनपब्लिश एवं पब्लिश बटन के साथ साथ रचना में त्रुटि सुधार करने के लिए रचना को एडिट करने का फीचर जोड़ा गया है|
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कभी केसर की फसल तो कभी संगमरमर का महल लगती हो,
सच कहता हूं तुम हर रोज एक मुकम्मल गजल लगती हो।
---- कमलकांत घिरी