तुम्हारे ख़्वाब पलकों पर, कुछ हसरतें रख गए..
ख़ुश्क ज़मीं पर समन्दर सी, मुहब्बतें रख गए..।
गौर से देखिए तो यहां, हर कोई तन्हा ही तो है..
कौन फिर सबके हिस्से में, ये सोहबतें रख गए..।
यूं तो मुझे ज़माने के साथ की, कोई दरकार नहीं..
मगर वो आए और, जिंदगी की जरूरतें रख गए..।
उनसे कुछ बहुत बड़ी, अदावत तो नहीं थी कभी..
मगर बहस–मुबाहिसों के लिए, अदालतें रख गए..।
एक पल रुकने को भी, कभी वक्त मिला ही नहीं..
और जो चले गए तो, हर तरफ फुरसतें रख गए..।
जिन पर था जिम्मा, मुहब्बत के चमन लगाने का..
वो तो अपने हाथों में, फूल लेकर नफरतें रख गए..।
मेरे किरदार में जिसको भी, खामियां नज़र आई..
वो मेरे कंधों पर, अपनी–अपनी तोहमतें रख गए..।