बेपरवाह परिंदें
उन्मुक्त गगन में
उड़ते उड़ते झूमे
दूर तलक
गांव सड़क
दाना पानी ढूंढे।
घोंसले कहां
परिवार कहां
अपने लोग कहां
सबकुछ हैं
धीरे धीरे छूटे।
कभी इस डाली
कभी उस डाली
मनाते किस्मत
जो हैं रूठे।
आसान नहीं
राह कठिन
बहेलिया भी
कनखी से देखे।
लालच लोलुपता
दिखाकर
फसाने को जाल फेंके।
कुछ जप्त हुए
कुछ अभिशप्त हुए
कुछ उड़ते उड़ते भागे।
ठहरी रात
गहरी चाल
कदम कदम पर धोखे।
वक्त बन काफ़िर
पग पग पंख निचोड़े
किसी को
कहीं का ना छोड़े।
पर जो उड़ गए
डंटे रहें
वह सात समंदर
पार गए।
मतलबी इस फरेबी
दुनियां के बहरूपियों से
बच गए।
दाना पानी
ढूंढते ढूंढते
जा कर के कहीं और बसे
और फिर ना वतन को अपने
लौट सके।
और फिर ना कभी
वतन को अपने लौट सके.....