मैने विज्ञान की किताब में पढ़ा था,
सभी ग्रह आपस में धीरे–धीरे दूर हो रहे हैं,
एक–दूसरे से..
अनंत की ओर बढ़ते हुए..
इनका जीवन पर भी प्रभाव अब
हो रहा है, दृष्टिगोचर सा..
इंसाँ भी तो हो रहा है एक दूसरे से
विलग सा,
चाहे कोई अलगाव हो
या कि ना हो..
रिश्तों के टूटने का बस एक सिलसिला
चल रहा है, जो कभी भीतर था
अब दरक कर बाहर भी यहां वहां
अनायास ही दिखने लगा है..
सोचता हूं, जब ग्रह हो रहे है
शनै–शनै विलग तो उनके बीच में
है एक विवर..एक खालीपन
एक अंतहीन सी खामोशी..
मगर ये आदमी जो हो रहा है दूर–दूर,
तो उसके बीच में खाली जगह नहीं है..
उसमें भरा हुआ है कुछ स्वार्थ, कुछ लालच
और एक दूसरे से आगे निकलने की होड़..
अब एक–दूसरे को कोई थामे भी तो कैसे..
ग्रह तो अपनी पहुंच में नहीं,
मगर तुम तो अब भी कुछ झुक कर,
कुछ बाहें फैलाकर रोक सकते हो..
और पाट सकते हो इन सब दूरियों को..
पवन कुमार "क्षितिज"

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




