दिन निकल आता है
और डूब जाता है
फिर अंधेरी रात
हम सो जाते है
फिर दिन निकल आता है
और डूब जाता है l
हम वही है…
न उमर बढ़ रही है
न काल दौड़ रहा है
फिर भ्रम सा हो जाता है
हम बूढ़े हो गए l
मृत्यु पता है हमे
फिरसे हम यहाँ आएंगे
इसका कोई पता नहीं l
यह सब चक्रसा है
ऐसा लगता है हमे
कोई कोई पुरषोत्तम
ऐसा कह भी देते है
पर कोई प्रमाण नहीं l
कुछ कुछ ज्ञान है हमे
जितना कुँए में पानी l
बेचैनसा लगता है कभी
इस अनजानेसे गृह पर
हम अकेले
कहाँ से आये
कहाँ जाना है
कुछ पता नहीं l
दौड़ रहे है अविरत
थक भी रहे है
अमृत का कोई कुंभ
दिख भी नहीं रहा है l
बहुत कुछ ढूंढ भी लिया
हवा में उड़ भी लिया
फिर भी ऐसी कोई दवा
जो अक्षय शांति दे
नहीं मिली l
मिल भी जाता है कभी कभी
ब्रम्हांड का साम्राज्य
सच में मिल जाता है ?
या यह भी है कोई भ्रम l
दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता
फिर भी हम देखते है
सूर्य की ह्रदय में झाँककर
वहाँ कोई अँधेरा छिपा तो नहीं l
अब इसका कोई अंत नहीं
होगा भी, तो पता नहीं l
दिन निकल आता है
और डूब जाता है
फिर अंधेरी रात
हम सो जाते है
फिर दिन निकल आता है
और डूब जाता है l
✍️ प्रभाकर, मुंबई ✍️