सुनहरी धूप में लिपटी ज़मीं,
पकी बालियों की सोंधी नमीं।
खेतों की छाँव, भूसे का ढेर,
बचपन की साँसों में बसा सवेरा।
भैया के संग वो छुट्टी की बात,
माँ के हाथों का गरम पराठा साथ।
हवा में पुदीने की चटनी की महक,
धूप में सूखती मिर्चों की झलक।
आँगन में बैठी दादी की बात,
टोकरी में मक्के के दानों की सौगात।
दूर खेत से आती पापा की टेर —
“चलो, काम पूरा, अब घर की ओर।”
मीना की आँखों में सपनों की बात,
“भैया, क्या लौटेंगे हम हर बार यहाँ साथ?”
गोपाल ने देखा नील गगन,
बोला — “दिल में बसा है ये धरती का धन।”
खुशबू ये धान की, मिट्टी की महक,
बचपन की बातें, स्नेह की चमक।
शहर की भीड़ में ढूँढ़ते हैं वही,
गाँव की साँझ, भूसे की छाँव सही।