किसी ने देखा क्या उसको जाते
क्षितिज - गगन से बढ़ते आगे।
उर स्पंदन को समेटे आंखों में
उलझन, व्यथा पुलक प्राणों के।
शनै - शनै जो चल रहा था
मुस्काता मुदित वह बढ़ रहा था।
किए पार उसने प्रातः स्वर्ण बांध
कनक रजत के उदिप्त सांझ।
देखा परियों के नर्तन सुंदर
प्रेम तरंगों से लिपटे जलधर।
सुरधनु के रंगों से निर्मित दुनियाँ
कल्पित सस्मित चांद की बुढ़िया।
मलयानिल के मृदु मधु गान
बिछे फूलों पर अलि के प्राण।
निर्जन पथ पर प्रेम उगाते
क्या देखा किसी ने उसको जाते?
_ वंदना अग्रवाल निराली
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