चुपचाप चलते रहे धूप में,
कभी छांव न मांगी किसी से,
कंधों पे बोझ था सपनों का,
पर शिकवा नहीं ज़िंदगी से।
माथे की सिलवटें कहती हैं,
हर मोड़ पे कितने जतन किए,
हम हँसते रहें बस यूँ ही,
अपने ग़मों को भी हर क्षण पिया।
ना रूठे कभी तक़दीर से,
ना थके ज़िम्मेदारियों के बोझ से,
हर सुबह एक नया संघर्ष था,
हर रात में कोई और सोच थी।
माँ की लोरी में जो मिठास है,
पिता की आँखों में वही प्यास है,
बोलते कम हैं, समझते ज़्यादा,
प्यार जताते नहीं, पर है हर साँस में।
जब हम गिरे, उन्होंने थामा,
बिना कहे ही रास्ता दिखा दिया,
हमारे कल की नींव रखने को,
अपने आज को कुर्बान कर दिया।
जेबें खाली हों या हों सिक्को से भरी,
हमारी ज़रूरतें पूरी मिलती थीं,
वो खुद भूखे रह जाते थे अक्सर,
मगर हमारी थाली कभी अधूरी न थी।
खिलौनों से लेकर किताबों तक,
हर ख्वाहिश पर उनका पहरा था,
हम जो भी हैं, जो बन पाए,
उसमें कहीं न कहीं उनका चेहरा था।
उपदेश नहीं — उदाहरण थे,
कठोर दिखते पर भावुक थे,
मौन में भी बहुत कुछ कहते,
उनके कदमों में ही तो परमेश्वर थे।
आज जब सोचती हूँ पीछे मुड़कर,
पिता सिर्फ़ रिश्ता नहीं — एक दर्शन हैं,
संघर्षों से सजी एक लंबी गाथा,
त्याग, प्रेम और धैर्य का समर्पण हैं।
पिता — एक नींव हैं घर की,
ना दिखें तो भी खड़े रहते हैं।
हवा की तरह साथ रहते हैं,
पर ठोस दीवारों-से सहते हैं।
थकते रहे उम्र भर छाँव देने में,
खुद धूप में जलते रहे… पिता!"
"त्याग, मौन, प्रेम और संघर्ष
का दूसरा नाम पिता ही तो है।