अकेला, तन्हा, सुना–सुना सा मैं,
और तुम महफिलों से भरी !
कंटीला, बेनूर, झुका– झुका सा मैं,
और तुम खुशबू बहारों से भरी !
दिन के कोरे आसमां सा मैं,
और तुम चांदनी, सितारों से भरी !
अमावस की रात के अंधेरे सा मैं,
और तुम पूनम उजालों से भरी !
तीखा, बेस्वाद, खारा–खारा सा मैं,
और तुम स्वाद की मीठी प्यालों से भरी !
ठहरा, थमा, रुका–रुका सा मैं,
और तुम सरिता की बहती धारों से भरी !
डूबता, फिसलता, बहता– बहता सा मैं,
और तुम साहिल किनारों से भरी !
जलता, जलाता, अगन–अगन सा मैं,
और तुम बरखा की ठंडी फुहारों से भरी !
टूटता, बिखरता, पृथक–पृथक सा मैं,
और तुम बिखरों को समेटती सहारों से भरी!
अबूझ, अनभिज्ञ, निःशब्द, निरक्षर सा मैं,
और तुम अक्षरों से बनी किताबों से भरी।।
----कमलकांत घिरी, मनकी, मुंगेली, छत्तीसगढ़।