"अभी मेरी आँख में नूर है"
मेरे तन के ज़ख़्म मत गिन,
अभी मेरी आँख में नूर है,
टूटे हुए ख़्वाबों के साए में,
भी जिंदा रहने का सुरूर है।
हर एक दर्द को सीने में पाला है,
हर आँसू को मुस्कान में ढाला है,
मोहब्बत की राख से उठकर,
अब मैंने खुद को सँभाला है।
वक़्त की मार सह ली चुपचाप,
फिर भी लबों पर कोई शिकायत नहीं,
सीने में तूफ़ान हैं ,
कई पर जुबां पर बगावत नहीं।
जिसे लोग हार समझ बैठे थे,
वो मेरी नई शुरुआत थी,
अभी हौंसला बाकी है मुझमें,
अभी मेरी रगों में बात है।
तो मत आँक मेरे जख्मों को,
ये सब मेरी पहचान नहीं,
मैं तो वो चिराग़ हूँ दोस्त,
जो आँधियों में भी बुझती नहीं।
रचनाकार- पल्लवी श्रीवास्तव..
ममरखा, अरेराज, पूर्वी चम्पारण (बिहार )